BREAKING NEWS
Search

राजनीतिक संगठनों के नेतृत्व संकट के भीतर की अनसुनी कहानी!

1079

लेख……मतीष पारीक

जयपुर, 19 अगस्त 2025 (न्याय स्तंभ)। भारतीय राजनीति आज जिस दौर से गुजर रही है, वहां सबसे बड़ा संकट विचारधारा का नहीं बल्कि नेतृत्व का है। अक्सर देखा गया है कि कमजोर नेता अपने आसपास ऐसे ही लोग रखना पसंद करते हैं, जो उनसे सवाल न पूछें और बस आदेश मानते रहें। क्योंकि अगर कोई कार्यकर्ता या पदाधिकारी अपने नेता से ज्यादा समझदार या अनुभवी होगा, तो वह आंख बंद करके नेतृत्व पर विश्वास नहीं करेगा। वह सवाल उठाएगा और असहमति जताएगा। यही कारण है कि आज की राजनीति में योग्य और सक्षम लोगों को दरकिनार कर, कमजोर और बिना अनुभव वाले लोगों को आगे बढ़ाया जा रहा है।

आज़ादी के बाद के नेताओं को देखें तो पंडित नेहरू, सरदार पटेल, डॉ. राममनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने राजनीति को विचार और अध्ययन से जोड़ा। उन्होंने किताबें पढ़ीं, जनता से संवाद किया और संगठन खड़ा किया। लेकिन आज के समय में हालात बदल गए हैं। बिना ज़मीनी अनुभव और बिना विचारधारा के लोग सीधे बड़े पदों पर पहुंच रहे हैं। पैसा, प्रचार और समर्थकों की भीड़ उनके लिए सीढ़ी बन गई है। ऐसे में राजनीति की गहराई खोती जा रही है और सतहीपन बढ़ता जा रहा है।

अगर ताज़ा उदाहरण देखें तो राजस्थान भाजपा की कार्यकारिणी को लेकर हाल ही में विवाद सामने आए। यहां यह साफ दिखा कि पद पाने की होड़, कार्यकर्ताओं की मेहनत और संगठन की विचारधारा से कहीं ज्यादा अहम हो गई है। कांग्रेस में भी वर्षों से संगठनात्मक चुनाव नहीं हो रहे, जिससे कार्यकर्ताओं का उत्साह कम होता है। क्षेत्रीय दलों में परिवारवाद और रिश्तेदारों को आगे बढ़ाने की परंपरा है, जिससे संगठन कमजोर होता जा रहा है। वामपंथी दल, जो कभी विचारधारा की राजनीति का प्रतीक थे, नए कार्यकर्ता तैयार करने में असफल रहे और धीरे-धीरे छोटे होते चले गए।

यह स्थिति केवल भारत तक सीमित नहीं है। दुनिया के कई देशों में भी ऐसा ही देखा गया है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की राजनीति इस बात का उदाहरण है कि कैसे आक्रामक प्रचार और लोकप्रियता, गहरी नीति-समझ से ऊपर हो सकती है। ब्रिटेन में ब्रेग्ज़िट के दौरान कमजोर नेतृत्व और उलझे हुए फैसलों ने देश को बड़ी अस्थिरता दी। पाकिस्तान में इमरान खान जनता की उम्मीद बने, लेकिन संस्थागत टकराव ने वहां अराजकता फैला दी। श्रीलंका में राजपक्षे परिवार का दबदबा और गलत आर्थिक फैसलों ने पूरे देश को गंभीर संकट में धकेल दिया। इन सब उदाहरणों से यह साफ है कि कमजोर नेतृत्व और कमजोर सलाहकार, लोकतांत्रिक देशों के लिए बड़ी चुनौती बन चुके हैं।

जनता के नजरिए से देखें तो इसका सबसे बड़ा नुकसान आम लोगों को ही उठाना पड़ता है। जब नेता अनुभवहीन और बिना तैयारी के फैसले करते हैं, तो नीतियां अधूरी रह जाती हैं और योजनाओं का असर जनता तक नहीं पहुंचता। विकास रुक जाता है और लोकतंत्र केवल चुनाव तक सीमित होकर रह जाता है। जनता बार-बार वादे तो सुनती है लेकिन असल बदलाव नहीं देख पाती।

अगर राजनीति को इस संकट से निकालना है तो नेताओं और कार्यकर्ताओं दोनों को तैयार करने पर ध्यान देना होगा। नए लोगों को प्रशिक्षण दिया जाए, पदाधिकारियों के चयन में पारदर्शिता रखी जाए और योग्यता को आधार बनाया जाए। राजनीति को सिर्फ पद और प्रतिष्ठा तक सीमित करने के बजाय, इसे सेवा और जिम्मेदारी की भावना से जोड़ा जाए।

आज भारतीय राजनीति को सबसे ज्यादा जरूरत ऐसे नेतृत्व की है, जो खुद से ज्यादा सक्षम लोगों को साथ लेकर चले। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब सवाल पूछने वालों की आवाज़ को दबाने की बजाय, उसे सुना और समझा जाए।

🖊️ (यह लेखक के निजी विचार हैं। इस लेख का उद्देश्य किसी एक राजनीतिक दल पर टिप्पणी करना नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में मौजूद चुनौतियों की ओर ध्यान दिलाना है।)



न्याय की अवधारणा को सशक्त बनाने हेतु समाचार पत्र न्याय स्तम्भ के माध्यम से एक अभियान चलाया जा रहा है। आइए अन्याय और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए आप भी हमारा साथ दीजिये। संपर्क करें-8384900113


One thought on “राजनीतिक संगठनों के नेतृत्व संकट के भीतर की अनसुनी कहानी!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *