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हेरिटेज निगम का ओवर मीडिया मैनेजमेंट बना सिरदर्द, सरकार और DIPR ने नहीं लगाया PRO तो कैसे बिगड़ा खेल?

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जयपुर, 24 सितंबर 2025(न्याय स्तंभ) । राजस्थान की शहरी सरकार का मीडिया मैनेजमेंट सवालों के घेरे में है। ग्रेटर नगर निगम और अन्य विभागों में PRO तैनात हैं, वहीं मुख्यमंत्री कार्यालय में भी सरकारी आदेश प्राप्त चार सलाहकार वहां का काम देख रहे हैं। इसके बावजूद हेरिटेज नगर निगम में बरसों से PRO की कुर्सी खाली है। हैरानी की बात ये है कि इतनी बड़े सरकारी विभाग में कोई जनसंपर्क अधिकारी ही तैनात नहीं है। जो निगम की ओर से मीडिया और जनता के बीच संवाद का काम करे। सरकार ने हेरिटेज नगर निगम से ये सौतेला व्यवहार आज और अभी से नहीं बल्कि कई सालों से किया हुआ है।

अब सवाल यह है कि जब सरकार और DIPR ने PRO लगाया ही नहीं, तो यह “निजी जनसंपर्क तंत्र” आखिर किसकी अनुमति और कौनसे सरकारी आदेश से काम कर रहा है। क्या निगम की मुखिया ने अवैध रूप से निगम का रीड कहे जाने वाले इतने बड़े विभाग की कमान निजी हाथों में सौंप रखी है। यहां रोचक बात तो ये है कि सरकार भी जनसम्पर्क अधिकारी लगाने में कोइबदिलचस्पी नहीं ले रही। अब सरकार का पारदर्शी प्रशासन का नारा बेमानी सा लगने लगा है।


सालों बाद भी सरकार का अजीब तर्क

जब हमने इस मामले में सरकार का पक्ष जानना चाहा तो वहां से जवाब मिला कि दो–तीन महीने के लिए PRO क्यों नियुक्त किया जाए। जबकि सभी की जानकारी में है कि ये व्यवस्था पूर्व आयुक्त अभिषेक सुराणा के समय से चलती आ रही है। लेकिन यही वह समय है जब नगरीय चुनावों से पहले सरकार को अपनी योजनाओं और उपलब्धियों को जनता तक पहुँचाना चाहिए। PRO न होने से निगम प्रशासन और चुने हुए प्रतिनिधियों का संवाद पूरी तरह बाधित हो गया है। न मीडिया से सही संपर्क हो रहा है और न योजनाओं का प्रचार-प्रसार।


अब सवाल यह उठता है कि जिस काम को देखने के लिए सरकार ने विभाग बनाया है और जिसके लिए बजट भी तय है, वहां सिस्टम को गैर-सरकारी लोगों पर क्यों छोड़ा गया? क्या सरकार और निगम प्रशासन को अब सरकारी कर्मचारियों पर भरोसा ही नहीं रहा?


जब हमने इस मुद्दे पर महापौर कुसुम यादव से बात करनी चाही तो उन्होंने फोन तक नहीं उठाया। मैसेज भेजने के बावजूद कोई जवाब नहीं आया। उनकी यह चुप्पी खुद इस बात का संकेत है कि निगम में सब कुछ ठेके के कर्मचारियों और निजी प्रबंधनों पर ही टिका हुआ है।
अब हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि इसकी गूंज प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक पहुँच गई है। लंबे समय से विज्ञापन का पैसा अटका पड़ा है और मीडिया संस्थान परेशान हैं। अंदरखाने सूचना ये है कि निगम अपने बजट से ज्यादा विज्ञापन पहले ही दे चुका है। यही वजह है कि अब इस पेचीदा मामले को भी निपटाने का जिम्मा निजी हाथों को ही सौंप दिया गया है। खबरें तो यहां तक आ रही हैं कि ऊपर से आदेश दिए गए हैं कि मीडिया से संपर्क साधकर किसी भी तरह पुराने और नए बिलों का मामला निपटाया जाए, ताकि विवाद तूल न पकड़े और किसी को कानों-कान खबर भी नहीं हो।


हमारा मकसद सरकारी सिस्टम को हमारी लेखनी से नीचा दिखाना नहीं है। हम निष्पक्ष और निर्भीक न्याय की बात करते हैं। अक्सर लोग हमारी लेखनी को ही निशाना बनाते हैं, जबकि हकीकत यह है कि हम वही लिखते हैं जो जनता के सामने सच्चाई के तौर पर मौजूद है। यह किसी का निजी मामला नहीं है कि कोई गैर-सरकारी व्यक्ति किसी काम में हाथ बंटाए, लेकिन जब सरकारी जिम्मेदारियाँ ही ठेके और निजी इंतज़ामों पर छोड़ दी जाएँ, तो यह सरकार और व्यवस्था दोनों के लिए गंभीर चिंता का विषय है।



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